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हिंदी का पहला नाटक ‘आनंद रघुनंदन’ जिसने बघेली को विश्व में दिलाई पहचान : Vindhya
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हिंदी का पहला नाटक ‘आनंद रघुनंदन’ जिसने बघेली को विश्व में दिलाई पहचान : Vindhya
रीवा / Rewa News । विंध्य ( Vindhya ) की ऐतिहासिक रीवा राजघराने की धरोहर हिंदी के प्रथम नाटक की पांडुलिपि खतरे में दिख रही है। रीवा के महाराजा विश्वनाथ सिंह ने सबसे पहले आनंद रघुनंदन नाटक ब्रजभाषा में लिखा थाए बाद में असका कई भाषाओं में अनुवाद हुआ। यहां यह बताना लाजिमी है कि हिन्दी का पहला नाटक ष्आनंद रघुनंदनष् ( Anand Raghunandan )जिसने बघेली को राष्ट्रीय मंच में पहचान दिलाई है। कई शोधार्थियों ने अपनी पीएचडी की डिग्री में इसका प्रामाणिक उल्लेख किया है। यह नाटक विंध्य के रंगमंच के लिए ऐसी विरासत है जिसके माध्यम से राष्ट्रीय स्तर पर अलग पहचान बनी है।
![हिंदी का पहला नाटक ‘आनंद रघुनंदन’ जिसने बघेली को विश्व में दिलाई पहचान : Vindhya ( Anand Raghunandan kis ki rachna hai](https://www.rewariyasat.com/wp-content/uploads/2021/02/aanand_raghunandan_6411165_835x547-m.jpg)
इसकीखासियत यह है कि बघेली बोली में भी इसे तैयार किया गया और उसे कई राष्ट्रीय.अंतरराष्ट्रीय स्तर के मंच पर भी प्रस्तुत किया गया। यह रीवा का सौभाग्य है कि दो सौ वर्ष पूर्व रीवा राज्य के तत्कालीन महाराजा विश्वनाथ सिंह जूदेव द्वारा रचित हिंदी का पहला नाटक आनंद रघुनंदन विश्व इतिहास पटल में दर्ज हो चुका है। केंद्रीय पुस्तकालय रीवा में सहेजी गई यह साहित्यिक विरासत रंगमंच की दुनिया का आधार स्तंभ मानी जाती है। परंतु आज उपेक्षा के कारण तमाम भाग को दीमक खा गए हैं।
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रिकार्ड के अनुसार हिंदी का प्रथम नाटक भारतेंदु के पूर्ववर्ती नाटककारों में रीवा नरेश विश्वनाथ सिंह जूदेव;1846.1911द्ध के ब्रजभाषा में लिखे गए ष्आनंद रघुनंदमष् ( Anand Raghunandan ) और गोपाल चंद्र के ष्नहुषष् ;1841द्ध को हिंदी का पहला नाटक माना जाता है। आनंद रघुनंदन की रचना पहले हिंदी और फिर संस्कृत में हुई। दुर्भाग्य से इसका रचना काल किसी अन्तरसाक्ष्य और बाह्य साक्ष्य के अभाव में निश्चित नहीं हो पाया है। उसके रचनाकाल का उल्लेख ना तो पांडुलिपि में है और ना ही कहीं और।
माना जाता है कि यह रचना संवत 1800 से 1911 के मध्य कभी हुई होगी। एक दावा यह भी है कि संवत 1830 में इसकी रचना हुई थी।साहित्यकारों की मानें तोसन 1871 आनंद रघुनंदन का प्रथम प्रकाशन लॉयड मुद्रणालय काशी से हुआ था। जिसकी कुछ प्रतियों को केंद्रीय पुस्तकालय रीवा में ऐतिहासिक दस्तावेज स्वरूप संरक्षित कर रखा गया था। अब तक करीब 65 वर्षों का लंबा समय बीतने के बाद भी आज तक इसके संरक्षण का कोई प्रयास नहीं किया गया।
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साहित्यकार मानते हैं कि विंध्य क्षेत्र हिंदी भाषा का एक मूल पीठ रहा और हिंदी को यहां से सदैव सम्बल मिला। प्रथम बांधव नरेश महाराज कर्णदेव ;1183.1203द्ध के समय से ही इस वंश के साहित्य सृजन की उज्ज्वल परंपरा का आरम्भ होता है। महाराजा कर्णदेव ने ष्रारावली्य नामक ग्रंथ की रचना की थी। 19वीं शताब्दी में महाराजा जय सिंह ने संस्कृत के पुराणों को हिंदी मेकथानक काव्यों के रूप में प्रस्तुत किया। जय सिंह के पुत्र विश्वनाथ सिंह और उनके पुत्र रघुराज सिंह संस्कृत के मुख्य कवियों में रहे। महाराजा विश्वनाथ सिंह ने 19 ग्रंथ संस्कृत में और 15 ग्रंथ हिंदी में लिखे। इन्ही में एक है ष्आनंद रघुनंदन ( Anand Raghunandan ) जो कि हिंदी और संस्कृत भाषा मे रचित एकांकी है।
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