रीवा राजा रामचंद्र ने कुछ इस तरह किया था अकबर के बुलावे पर 'संगीत सम्राट तानसेन' को विदा
सम्राट अकबर के रत्नों में से दो रत्न रीवा के थें पहले बीरबल (Birbal) फिर तानसेन (Tansen). अकबर को बीरबल की चतुराई भा गई, तो तानसेन के संगीत सुनने के लिए उनके कान तरसने लगे थें.
तानसेन का असली नाम रामतनु पांडेय था, जो मुकुंद पांडेय के पुत्र थें, ग्वालियर तानसेन की जन्मस्थल था परन्तु उनकी शिक्षा दीक्षा रीवा राज्य में हुई, वे रीवा राज्य के राजा रामचंद्र के दरबार की शान थे. राजा रामचंद्र की सभा के गायक जीन खां अकबर के दरबारी गायकों में शामिल हो गए थे. उन्होंने अकबर से तानसेन की विशिष्ट गायकी की प्रशंसा की. अकबर ने अपने सेनापति जलाल खां को तानसेन को लाने के लिए रीवा नरेश रामचंद्र के पास बांधवगढ़ भेज दिया.
राजा ने अकबर के फरमान को स्वीकार करते हुए तानसेन को उनके पास भेज दिया. कहा जाता है कि जिस डोले में तानसेन को भेजा, उसका एक सिरा खुद राजा रामचंद्र ने कहार बनकर उठाया. तानसेन को इसका पता चला तो वह रोने लगे, राजा को वचन दिया कि जिस दाहिने हाथ से उनकी जुहार की है, उससे अब किसी दूसरे की जुहार नहीं करेंगे. इस तरह तानसेन वर्ष 1562 में अकबर के दरबारी बने और 27 साल तक उनके दरबार में रहे.
तीन ग्रंथों की रचना
तानसेन ने तीन ग्रंथों की रचना की. यह ग्रंथ संगीत सार, राग माला और गणेश स्त्रोत हैं. संगीत सार में उन्होंने संगीत के समस्त अंगों जैसे नाद, तान, स्वर, राग, वाद्य एवं ताल का विवेचन किया है. जबकि राग माला में राग-रागिनियों के बारे में जानकारी है.
गणेश वंदना स्तुति के रचनाकार हैं
गणेश वंदना में सदियों से गाई जाने वाली स्तुति के रचनाकार भी तानसेन हैं. तानसेन रचित गणेश वंदना की कुछ प्रमुख पंक्तियां हैं- 'उठि प्रभात सुमिरियै, जै श्री गणेश देवा, माता जाकी पार्वती पिता महादेवा. रिद्धि सिद्धि देत, बुद्धि देत भारी, तानसेन गजानंद सुमिरौ नर-नारी'.
तानसेन द्वारा रचित ध्रुपद
तानसेन द्वारा रचित धु्रपदों में 36 राग-रागिनियां का प्रयोग हुआ है. इनमें राग भैरव, रागिनी तोड़ी, रागिनी गुर्जरी, मुल्तानी और धनाश्री प्रमुख हैं.
तानसेन और बैजू के सुर संग्राम की गवाह ताजनगरी
अब अकबर दरबार में बात राग और सुर की छिड़े और तानसेन का जिक्र न हो यह मुमकिन नहीं है. इतिहास में संगीत सम्राट के नाम से मशहूर तानसेन को कोई हरा भी सकता है, सपने में भी कोई यह नहीं सोच सकता था. मगर, हकीकत यही है कि संगीत सम्राट को एक या दो बार नहीं बल्कि तीन बार सुरक्षेत्र के रण में हार का सामना करना पड़ा. बैजू बावरा और तानसेन के बीच 15वीं सदी के आखिर में हुए संगीत के महामुकाबले की गवाह ताजनगरी बनी.
इतिहास के जानकार एवं फतेहपुर सीकरी में गाइड चांद मोहम्मद उर्फ भारत सरकार कहते हैं कि अकबर के नवरत्नों में से एक तानसेन का बैजू बावरा से मुकाबले का उल्लेख अबुल फजल ने आइने-अकबरी में किया गया है.
ऐसे पड़ी मुकाबले की नींव
चांद मोहम्मद बताते हैं संगीत सम्राट तानसेन और बैजू बावरा के बीच महामुकाबले की नींव पड़ने की कहानी भी कम दिलचस्प नहीं है. वृंदावन के स्वामी हरिदास कृष्ण भक्त थे. वह आरती के समय शास्त्रीय गायन करते थे. तानसेन और बैजू बावरा उनके शिष्य थे. स्वामी हरिदास की ख्याति सुनकर अकबर ने उनसे मिलने की इच्छा जाहिर की तो तानसेन ने हामी भर दी.
यह बात स्वामी हरिदास को बुरी लग गई. उन्होंने इसे अपना अपमान समझा कि राजा को उनके पास लाने की जगह उन्हें क्यों बुलावा भेजा. हरिदास ने तानसेन को राग दीपक सिखाया था. हरिदास ने बैजू बावरा को मेघमल्हार सिखाने के बाद दोनों का मुकाबला करा दिया. यह मुकाबला तीन जगहों पर हुआ.
दीवान-ए-आम: तानसेन और बैजू बावरा के बीच पहला मुकाबला आगरा के किला के दीवान-ए-आम में हुआ. यहां पर बैजू बावरा ने पत्थर पिघला दिया और उसमें अपना तानपुरा गाड़ दिया. बैजू ने तानसेन से इसे अपने राग से निकालने को कहा लेकिन वह नहीं निकाल सके.
सिकंदरा: महान सुर साधकों के बीच दूसरा मुकाबला सिकंदरा स्मारक में हुआ था. बैजू का राग सुनकर हिरन उनके पास आ गए. बैजू ने हिरनों के गले में मालाएं डाल दीं. इसके बाद तानसेन को राग से हिरनों को अपने पास बुलाकर मालाएं उतारने को कहा. तानसेन ने राग लगाया लेकिन हिरनों को नहीं बुला सके, दूसरा मुकाबला भी हार गए.
फतेहपुर सीकरी: तानसेन और बैजू बावरा के बीच आखिरी मुकाबला फतेहपुर सीकरी में हुआ. स्मारक में बने जिस चबूतरे पर तानसेन सुरों का रियाज करते थे. सुरक्षेत्र का आखिरी रण यहीं पर सजाया गया. तानसेन के चबूतरे के चारों कोनों पर दीपक रख दिए गए. तानसेन ने राग दीपक गाना शुरू किया तो दीये जल उठे. इससे वहां का तापमान बढ़ गया, मुकाबला देखने आए लोग उठकर जाने लगे. तभी बैजू बावरा ने राग मेघ मल्हार गाकर बारिश कराके दीपक बुझा दिए.