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दिग्गज नहीं, दिलेर है, विंध्यप्रदेश का शेर है | 'श्रीनिवास तिवारी' अष्टधातुई देवों से अलग एक जननेता: पं. जयराम शुक्ल

Aaryan Dwivedi
16 Feb 2021 6:00 AM GMT
दिग्गज नहीं, दिलेर है, विंध्यप्रदेश का शेर है | श्रीनिवास तिवारी अष्टधातुई देवों से अलग एक जननेता: पं. जयराम शुक्ल
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रीवा। पिछले दो दशकों में पहली बार ऐसा होगा जब श्रीनिवास तिवारी का जन्मदिन बिना उनकी मौजूदगी के आसन्न विपन्नता के साथ मनाया जाएगा. तिवारीजी कांग्रेस के कद्दावर नेता थे. विधानसभा अध्यक्ष के रूप में उनके 10 साल देश के विधायनी जगत में अविस्मरणीय थे. संभवतः वे पहले ऐसे अध्यक्ष थे जिनकी नजीर का लोकसभा में अनुशरण किया गया. लोकसभा में एक बार 'ऑफिस आफ प्राफिट' प्रकरण में विंध्यप्रदेश विधानसभा में (1950-1956) में विपक्षी दल के सदस्य के रूप में दी गई उनकी दलीलों को लोकसभा में संदर्भ के रूप में रखा गया था. यह मामला तब का है जब सोनिया गांधी और जया बच्चन समेत संसद के कई सदस्यों की सदस्यी गई थी. आशय यह कि वे कोई साधारण नेता नहीं थे खासतौर पर कांग्रेस के इन गाढ़े दिनों के लिहाज से.

उनके जन्मदिन 17 सितंबर को राहुल गांधी भोपाल आ रहे हैं. वे वहां रोड़ शो करेंगे. चाहते तो वे रीवा आकर इस मौके को भुना सकते थे. वोट भोपाल में हैं तो रीवा में भी हैं. तिवारीजी प्रदेशभर के न सही विंध्यभूमि के जननेता तो थे ही, जिनकी हुंकार पर जनसैलाब उमड़ पड़ता था. किसी ने राहुल गांधी को यह नहीं बताया होगा कि यह वही विंध्यक्षेत्र है जो 1977 में श्रीनिवास तिवारी और अर्जुन सिंह के नेतृत्व में इंदिरा जी के साथ चट्टान की भांति खड़ा रहा. कांग्रेस के सर्वाधिक विधायक यहीं से चुनकर गए थे. 1989-90 में भी इन्हीं दोनों की बदौलत विंध्य राजीव गांधी के साथ था. जबकि देश में कांग्रेस के खिलाफ बोफोर्स का बारूद गंधा थी.

17 सितंबर को श्रीनिवास तिवारी की स्मृतियों को तजकर यहां के ज्यादातर कांग्रेसी भोपाल में जुटें होंगे. तिवारीजी कांग्रेस के आलाकमानी नेताओं को अष्टधातुई कहते थे. आज के कांग्रेसी इन्हीं की परिक्रमा लगाते हैं. कांग्रेस के कार्यकर्ताओं के लिए अब परिक्रमा ही पराक्रम है. आश्चर्य नहीं..! हो सकता है तिवारीजी को राहुल गांधी जानते ही न हों. उनके इर्दगिर्द ऐसे लोग हैं जो कांग्रेस के लिए काम आने वाले लोगों को जानने ही नहीं देना चाहते.

बीती जनवरी में जिस दिन तिवारीजी का निधन हुआ था उस दिन भोपाल में कांग्रेस के प्रदेश नेताओं की बैठक चल रही थी. किसी ने राहुल गांधी के दूत व प्रदेशप्रभारी दीपक बावरिया को इसकी सूचना दी तो पलटकर उन्होंने पूछा कौन श्रीनिवास..? फिर उन्हें जब उनके बारे में विस्तार से बताया गया तब वो जान पाए कि श्रीनिवास तिवारी भी कोई थे. बावरिया जब रीवा राजनिवास में कांग्रेस के कार्यकर्ताओं द्वारा धकियाए गए थे तब उनके बारे में मीडिया के जरिए जाना. वे स्टेनफोर्ड पढ़ने-पढ़ाने, विदेश में बसने जा रहे थे, तभी राहुल गांधी ने उन्हें रोक लिया और कहा यहीं भारत में ही रहकर कांग्रेस के लिए काम करिए. तो बावरिया जी इतनी महान हस्ती हैं. राजीव गांधी के पास इसी तरह की महान हस्तियां हैं जिनकी स्क्रिप्ट में महात्मा गांधी, गोखले, तिलक, लाला लाजपतराय, बिपिनचंद्र पाल, मौलाना आजाद जैसे लोगों का जिक्र नहीं होता. वैसे इन स्टेनफोर्ड और हारवर्डिए सलाहकारों को देश के इतिहास से लेना देना ही क्या?

भाजपाई इस मामले में ज्यादा चतुर हैं. तिवारीजी के निधन के बाद सबसे पहले पहुंचने वाले बड़े नेताओं में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान थे. कांग्रेस के अष्टधातुई तो आठवें, दसवें तब पहुंचे जब मीडिया में नककटी होने लगी. राहुल गांधी ने तिवारीजी को तब भी इस कद का नहीं माना था कि उनके गांव तिवनी जाया जा सके. यह बात अलग है कि सोनिया गांधी उन्हें हमेशा मान देती थीं. दस जनपथ में वे अन्य मुलाकातियों से पहले तिवारीजी से मिल लिया करती थीं.

इंदिरा गांधी की तो बात ही अलग थी. तिवारीजी इंदिरा जी के कहने पर कांग्रेस में आए थे. उन्हें दिए वचन के मुताबिक 85 में टिकट काट दिए जाने के बाद भी वह ना बागी हुए और ना ही कांग्रेस छोड़ी. इंदिरा जी अपने कार्यकर्ताओं को कितना मानती थीं, एक उदाहरण- 1979 में जब रीवा के कांग्रेस नेता पूर्वमंत्री शत्रुघ्न सिंह तिवारी का निधन हुआ तो वे उनके गांव केमार गईं व घंटों परिजनों के बीच बैठी रहीं. इंदिरा जी के मुकाबले तो राहुल गांधी सवांश क्या लाखांश भी नहीं. इंदिरा जी रीवा जिले के मनगंवा क्षेत्र से लड़ने वाली चंपा देवी के प्रायः हर चुनाव में प्रचार करने आती थीं, क्योंकि बचपन में आनंदभवन में चम्पा मम्मा ने उनके साथ कुछ समय गुजारे थे. राहुल से ऐसी कल्पना करना ही व्यर्थ है.

तिवारी जी भांति कमलापति त्रिपाठी की भी ऐसी ही अनदेखी की गई थी. अपनों को दुरदुराने से पुरखों के अर्जित पुण्य का छय होता है. कांग्रेस यही पाप भोग रही है. डा. शंकरदयाल शर्मा को इसलिए कांग्रेस से पहले भाजपा याद करती है. पटेल, अंबेडकर, सुभाष बाबू, तिलक की जब भाजपा बातें करती है तो कांग्रेस के पेट में दर्द होने लगता है.

विंध्यभूमि में ही जन्मे अर्जुन सिंह, राजीव गांधी के समय देश के नंबर दो के नेता रहे. नरसिंहराव ने अदावत के बाद भी अपने बाद उन्हें ही माना. वे कांग्रेस के बड़े नेता थे. पर अब उनकी जन्मतिथि-पुण्यतिथि किस दिन आती-जाती है, किसी को पता ही नहीं चल पाता. पार्टी के एजेंडे व कार्यक्रमों से वे मरने से पांच साल पहले ही खारिज कर दिए गए थे. हो सकता है कि अगले साल से विंध्य के इन दोनों नेताओं, अर्जुन सिंह व श्रीनिवास तिवारी को कांग्रेस की बजाय भाजपा ही याद करने लगे. कांग्रेस में फर्क ही क्या पड़ता है.

17 सितंबर को रीवा में श्रीनिवास तिवारी का जन्मदिन भले ही नेताविहीन रहा पर, जनविहीन नहीं रहा. जनता ही तिवारीजी की पूंजी रही, जिसकी ताकत के बूते वे राजनीति के सफेद शेर बने रहे. राजनीति में इतना डूबा हुआ आदमी शायद ही कोई रहा हो. उनके तिथि-त्योहार, होली-दशहरा नहीं जन सम्मेलन, पार्टी मीटिंग्स थीं, वे पार्टी के कार्यक्रमों को भी शादी-ब्याह के उत्सव जैसा मनाते थे. खुद सक्रिय रहकर इस बात की चिंता करते कि लोग आएंगे कैसे, रुकेंगे कहां, नाश्ता, भोजन का इंतजाम क्या होगा?

जबतक सक्रिय रहे महीने में आठ-दस छोटे बड़े आयोजन. भोपाल से रीवा, यही उनकी तीर्थयात्रा यही उनके धाम. विधानसभा अध्यक्ष रहते हुए राष्ट्रकुल के पीठासीन अधाकारियों के सम्मेलन में जब विदेश जाने की बारी आती तो सीधे यह कहते हुए मुकर जाते कि तिवनी-पचोखर-लालगांव-बैकुंठपुर में सभा लगी है. हालैंड-इंग्लैंड-आस्ट्रेलिया से तो हमको वोट मिलने से रहे, सो मैं नहीं जा सकता. दसों साल वे अपने स्थान पर उपाध्यक्ष और पीठासीन अधिकारियों को विदेश के सैर-सपाटे में भेजते रहे.

किसी विधायक ने आरजू की कि वह विदेश जाना है तो तुरत जवाब, 'अगले डेलीगेशन में अपना नाम लिखवा देना.' विदेश को लेकर कभी कोई ग्लैमर नहीं पाला जबकि दर्जनों मौके उनके पास थे. वे कहा करते थे कि हम भारतीयों की यह अजीब मानसिकता है कि जो विदेश से ठप्पा लगवा कर आए, वही बड़ा विद्वान, वही बड़ा नेता, वही बड़ा संत. यह धारणा टूटनी भी चाहिए.

मध्य प्रदेश सरकार के विमान पर उनके सौ से ज्यादा कार्यकर्ताओं ने यात्रा की होंगी. एक बार उन्होंने एक ऐसी भी अर्जी दिखाई जिसमें किसी कार्यकर्ता ने हवाई जहाज से यात्रा करवाने की मांग की थी, जाहिर है उसकी मांग पूरी हुई. दस साल तक उन्होंने ने रीवा-भोपाल प्रायः हवाई जहाज से यात्रा की. मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने भी आदर सहित खुली छूट दे रखी थी. राजकीय हवाई जहाज के पायलट तिवारी जी के इतने मुरीद और घुलमिल गए थे कि इनके लिए तैयार ही बैठे रहते.

तिवारीजी में राजशाही को लोकशाही में बदलने का हुनर मालूम था. इसी हुनर के चलते तिवारीजी के मुरीद अर्जुन सिंह भी थे. "व्यापक लोकहित में समस्त नियमों को शिथिल करते हुए" आदेश जारी करने का नुस्खा तिवारी जी ने ही अर्जुन सिंह को दिया था. बाद में इसी नुस्खे को विधानसभा में नौकरी देने में आजमाया. ब्यूरोक्रेसी पर लगाम कैसे कसी जाती है कोई तिवारी जी से सीखे.

अर्जुन सिंह जब मुख्यमंत्री बने तो शुरूआती दिनों में नौकरशाही उन्हें ही धता बता देती. एक बातचीत में तिवारीजी ने यह रहस्य खोला था कि अर्जुन सिंह ने यह समस्या सामने रखी कि हल क्या है? मैंने उन्हें सुझाया कि मुख्य सचिव को बर्खास्त कर दीजिए सब लाइन में आ जाएंगे. वे चकित हुए तो हमने समझाया "ये लाटसाहब लोग खुद को खुदा समझते हैं इसी फेर में कई गलतियां भी कर जाते हैं, किसी को मुख्य सचिव की गलती ढूंढंने में लगा दीजिए जैसे ही पकड़ में आए रगड़ दीजिए.

कुछ माह बाद देश में तहलका मच गया जब अर्जुन सिंह ने अपने मुख्य सचिव को अच्छे से रगड़ (बर्खास्त) दिया. बाद में यही फार्मूला तिवारी जी ने विधानसभा के मुख्य सचिव के लिए अपनाया. सन् 1972 में सोशलिस्ट से कांग्रेस में आने के बाद तिवारीजी और अर्जुन सिंह जी में गाढ़ी मित्रता थी. सन् 77 में जब नेता प्रतिपक्ष बनने का पेंच अड़ा तो तिवारीजी ने अपने साथियों सहित समाजवादी तेजलाल टेंभरे का सपोर्ट करने की बजाय अर्जुन सिंह का साथ दिया. जनता शासनकाल में विपक्ष में इन दोनों की हमलावर जोड़ी को आज भी याद किया जाता है. मुख्यमंत्री बनने पर अर्जुन सिंह की वरीयता में तिवारीजी पहले क्रम में थे और उस हिसाब से भारी भरकम विभाग के साथ कैबिनेट में आए. छः महीने बाद तिवारी जी के इस्तीफे के पीछे कोई राजनीतिक कारण नहीं नितान्त पारिवारिक कारण थे. यह अभी तक रहस्य है और इसे रहस्य ही बनाए रखना अच्छा.

बाद में प्रतिद्वंद्वी होने के बावजूद भी दोनों परस्पर पूरक रहे. दिग्विजय सिंह कहा करते थे- गुरु (अर्जुन सिंह) और गुरुदेव (श्रीनिवास तिवारी) के बीच अच्छी सागा-मीती है. इन दोनों के चक्कर में मैं पिस जाता हूं. दरअसल, इन दोनों नेताओं के बीच जबरदस्त अंदरूनी समझ थी जो टिकट वितरण के समय समझ में आती थी. दोनों के बीच सम्मान का रिश्ता था लेकिन बाहर ऐसा अभिनय करते थे जैसे नागपंचमी के बाजीगर हों.

यह चुनाव इन दोनों की छाया से मुक्त है. नेताप्रतिपक्ष होते हुए भी अजय सिंह राहुल हाशिये पर रख दिए गए हैं. तिवारीजी के उत्तराधिकारी सुंदरलाल तिवारी विंध्य की राजनीति के दूसरे ध्रुव नहीं बन पाए. विधानसभा जिन श्रीनिवास की एक हुंकार से सन्नाटे में आ जाती थी वही अब सुंदरलाल तिवारी के खड़े होते ही सतही हंगामे में बदल जाती है.

कांग्रेस की राजनीति का यह संक्रमण काल है. विंध्य के कांग्रेस दिग्गजों गोविंद नारायण से श्रीनिवास तिवारी तक ऐसी जमात थी जिनका दिल्ली में दबदबा था. अब ऐसे नेता उग आए जो बिना जड़-पेड़ की अमरबेल हैं. ना इनको कांग्रेस के इतिहास से कोई वास्ता ना जनता-जनार्दन से लेना देना. आज के कांग्रेसी क्षत्रपों को ऐसे ही गमले में उगे हुए लल्लू-जगधर चाहिए.

बहरहाल अर्जुन सिंह या श्रीनिवास तिवारी इतनी कच्ची माटी के भी नहीं कि इनका व्यक्तित्व पहली ही बरसात में घुल जाए. दोनों ही इतिहास पुरुष हैं. इनको कोई याद करने आए या न आए इनकी रूह को कोई फर्क नहीं पड़ने वाला. हां, उनको जरूर पड़ सकता है जो अपने पुरखों की अवहेलना करते हुए और अपनी जड़ों को बचाने के जतन में माटी नहीं पेस्टीसाइड से काम चला रहे हैं. वे भविष्य में कहीं नहीं रहेंगे.

और अंत में एक वाकया श्रीनिवास तिवारी के लिए एक नारा जोश से गूंजता था- दिग्गज नहीं दिलेर है, विध्यप्रदेश का शेर है. एक बार किसी ने कहा कैसा नारा है, दिग्गज नहीं, दिलेर है..? तिवारीजी ने समझाया- इसे ऐसा मानों, हर दिग्गज दिलेर नहीं होता... लेकिन हर दिलेर दिग्गज होता है. तिवारीजी मध्य प्रदेश की राजनीति में अपनी दिलेरी के लिए जाने जाते रहेंगे.

(पं. जयराम शुक्ल, लेखक, वरिष्ठ पत्रकार एवं टिप्पणीकार)

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