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भंडाफोड़ : पहले बताओ नाम फिर मिलेंगी निजी विद्यालयों की पुस्तके, ऐसे चलता है खेल : REWA NEWS
स्कूल संचालक बता दे नाम और परिचय देते हैं बुक स्टाल की..... 👉एनसीईआरटी की पुस्तकें नहीं मान्य होती निजी विद्यालयों में...
रीवा । शहर में संचालित सीबीएससी मध्यप्रदेश शासन से मान्यता प्राप्त निजी विद्यालयों ने प्राइवेट राइटर की बुक को ज्यादा अहमियत देते हुए दो दुकानों से सांठगांठ कर किताबे वहीं से दी जा रही है दूसरी जगह बच्चों को किताबें नहीं मिल रही। एनसीईआरटी की किताबें को भी कोई महत्व निजी विद्यालयों ने नहीं दिया। इतना ही नहीं दुकान संचालक किताबों की मनमानी दाम वसूल रहे हैं । आए दिन दुकान संचालकों से और अभिभावकों के बीच में विवाद की स्थिति बनी रहती है। स्कूलों में बकायदा अभिभावकों को दुकानों के नाम और पते बताए जाते हैं साथ ही किताबों की सूची भी सौंपी जाती है। दुकान संचालक और प्राइवेट पब्लिकेशन सांठगांठ कर किताबों में मनमानी रेट डलवा कर बेच रहे हैं। किताबों की कीमत 4 गुना ज्यादा रहती हैं। इतना ही नहीं दुकान संचालक सभी किताब एक साथ देते हैं याद ना लेने पर कोई भी बुक्स नहीं देते। प्रशासन भी करता है इनका सहयोग रीवा जिले में शिक्षण सत्र शुरू होते ही निजी विद्यालयों और दुकान संचालकों के बीच किताबों की बिक्री को लेकर समझौता हो जाता है और मनमानी तरीके से कीमत बढ़ा कर की पुस्तकें बेची जाती हैं। जिलेभर में करोड़ों रुपए का व्यवसाय हो जाता है जिसका कोई लेखा-जोखा नहीं रहता। जब कोई अभिभावक पक्का बिल मांगता है तो समय ना होने या भीड़ का बहाना बनाकर उन्हें रसीद नहीं दी जाती, इतना ही नहीं आयकर विभाग को भी जो बिल प्रस्तुत किए जाते हैं उसमें और बिक्री में अंतर रहता है।
मनमाफिक एमआरपी डालकर बेची जाती है पुस्तकें, छूट का नहीं रहता कोई नामोनिशान विद्यालय संचालकों द्वारा मोटी कमीशन लेने के कारण दुकान संचालक एमआरपी रेट पर पुस्तके भेजते हैं एक भी रुपए की छूट नहीं रहती है। सवाल यह है कि जब एमआरपी रेट पर पुस्तके बिक रही है तो जीएसटी कैसे जोड़ा जाता है। और बिल में कैसे सम्मिलित किया जाता है।
निजी विद्यालयों के आगे सरकारें भी हो जाती है नतमस्तक निजी विद्यालयों के दबाव में सरकारे भी झुक जाती हैं! कहने को तो रहता है कि सरकार गरीब बच्चों को बेहतर शिक्षा देने के हर संभव प्रयास करती है लेकिन जमीनी हकीकत यह रहती है कि उन्हें ध्यान देने वाला कोई नहीं रहता। प्रदेश में शिक्षा का अधिकार कानून लागू है जिस में गरीब बच्चों को प्रवेश दिया जाता है किसी तरह निजी विद्यालयों में प्रवेश तो मिल जाता है लेकिन जब किताब की सूची उन्हें सौंप दी जाती है तो उनके पसीने छूट जाते हैं। यदि फीस देने के लिए ही होता तो शिक्षा अधिकार कानून के तहत बच्चो प्रवेश क्यों दिलवाते। 8-9 हजार रुपए की किताबों की जब सूची जब निजी विद्यालय के संचालक द्वारा सौंप दी जाती है तब अभिभावको के पसीने छूट जाते हैं तब सरकार एसी रूम में बैठकर गुलछडे उड़ाते रहते हैं।
सासंद व विधायक कभी नही उठाते आवाज़ सड़क, पानी, शिक्षा, स्वास्थ्य और बिजली के नाम पर सांसद और विधायक वोट मांगते हैं और कहते हैं कि उन्हें सब सुविधाएं दी जाएंगी। लेकिन चुनाव जीतने के बाद ना तो कभी सांसद और ना कभी विधायकों ने गरीबों की आवाज सुनी। यदि गरीबों की आवाज सुनाई देती तो आज ₹500 में मिलने वाली सभी बुकिंग ₹8-9 हजार में ना मिलती। जमीनी हकीकत तो यह है कि विधायक और सांसद चुनाव जीतने के बाद जनता को उसी तरह में मचलते हैं जिस तरह पैर के नीचे चींटी आने पर उसे कुचल दिया जाता है।