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रीवा: पैरा एथलीट सचिन साहू, जिसने नेशनल चैम्पियनशिप में मेडल जीता फिर सड़क में आइसक्रीम बेचने लगा

रीवा: पैरा एथलीट सचिन साहू, जिसने नेशनल चैम्पियनशिप में मेडल जीता फिर सड़क में आइसक्रीम बेचने लगा
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Rewa's Para athlete Sachin Sahu: रीवा के पैरा-एथलीट सचिन साहू की कहानी रुलाने वाली है और गुस्सा भी दिलाती है. देश में खिलाडियों की क्या हालत है यह जानकर अफ़सोस होता है

रीवा के पैरा एथलीट सचिन साहू: जब कोई खिलाडी मेडल जीतता है तो पूरा देश उसकी आवभगत में जुट जाता है, वह स्टार बन जाता है, लोग ऑटोग्राफ और फोटोग्राफ के लिए लाइन लगाते हैं. लेकिन यह ख्याति और प्रसिद्धि हर खिलाडी को नसीब नहीं होती। मध्य प्रदेश के रीवा जिले में एक पैरा एथलीट जिसने नेशनल चैम्पियनशिप में ब्रॉन्ज मेडल जीता वो सड़क में खड़े होकर आइसक्रीम बेचने के लिए मजबूर है. उस खिलाडी का नाम सचिन साहू है.

Para-athlete Sachin Sahu: सराकर भले ही विकलांगों को दिव्यांग कहकर उनका हौसला बढ़ाने का ढोंग रचती हो लेकिन जब उन्हें प्रोत्साहित करने की बात आती है तो सरकार गूंगी और बहरी हो जाती है. नेशनल चैंपियनशिप में ब्रॉन्ज़ लाने वाले खिलाडी को सिर्फ इस लिए संघर्ष करना पड़ता है क्योंकि वो विकलांग है? तो फिर यह सचिन साहू का नहीं इस देश का दुर्भाग्य है. और अगर ऐसा नहीं है तो अन्य एथलीट की तरह सचिन साहू को वो सब क्यों नहीं मिला जो एक हष्ट-पुष्ट एथलीट को मिलता है?

कौन है पैरा एथलीट सचिन साहू


Rewa's Para-athlete Sachin Sahu: सचिन साहू पेशे से सड़क में आइसक्रीम बेचने का काम करते हैं. सचीन एमपी के उमरिया जिले के पटना गांव से ताल्लुख रखते हैं. उनके घर में माता-पिता चार बहने और 2 भाई हैं. सचिन के परिवार की माली हालत कुछ ठीक नहीं है. सही शब्दों में कहा जाए तो नेशनल चैम्पियनशिप में ब्रॉन्ज़ लाने वाले एथलीट का परिवार इस महंगी दुनिया में गरीबी से जूझ रहा है. सचिन अब रीवा में रहकर सड़कों में घूमते हुए कुल्फी बेचते हैं




Madhya Pradesh Para-athlete Sachin Sahu: देश में एक कल्चर बहुत ख़राब है यहां बचपन से बच्चों को एक चीज़ कही जाती है 'पढोगे लिखोगे तो बनोगे नवाब और खेलोगे कूदोगे तो बनोगे ख़राब' अगर सचिन साहू ने इस कहावत को अमल में लिया होता तो शायद उन्हें पैसों के लिए इतनी मशक्क्त नहीं करनी पड़ती, क्योंकि देश में खेलने-कूदने वालों को सड़क में उतर कर ही पैसे कमाने पड़ते हैं. हां अगर खिलाडी दिखने में अच्छा है और दिव्यांग नहीं है तो उसे शोहरत मिल जाती है.

जूते खरीदने के पैसे नहीं थे

सचिन साहू अपने बचपन से आर्थिक तंगी का सामना करते आ रहे हैं. इसी साल 28 मार्च से 31 मार्च तक ओडिशा के भुवनेश्वर में आयोजित हुई 20वीं नेशनल पैरा एथलीट चैंपियनशिप 2022 (20th National Para Athletics Championships 2022) में 400 मीटर की दौड़ में पार्टिसिपेट करके ब्रॉन्ज़ मेडल जीता है. जब वो इस राष्ट्रीय प्रतियोगिता के लिए खुद को तैयार कर रहे थे तब उनके पास जूते खरीदने तक के पैसे नहीं थे. सचिन साहू ने नंगे पैर दौड़कर रनिंग की प्रैक्टिस की, और 1.17 सेकेंड में 400 मीटर लम्बी रेस को पूरा किया।

सचिन का एक पैर दूसरे पैर की तुलना में छोटा है, वह जन्म से विकलांग हैं लेकिन उन्होंने खुद को कभी कमजोर नहीं माना और हमेशा खेल में कुछ बड़ा कर दिखाने के प्रति अडिग थे.

क्रिकेट भी खेला लेकिन बात नहीं बनी

सचिन साल 2015 से लेकर 2019 तक क्रिकेट भी खेलते थे, वो क्रिकेट के अच्छे खिलाडी हैं लेकिन उनका एक पैर छोटा है इसी लिए उन्हें इस फील्ड में सफलता नहीं मिली, लेकिन वो निराश नहीं हुए, एक बार वह ग्वालियर गए थे जहां उनकी मुलकात एथलेटिक्स कोच बीके धवन से हुई थी. क्रिकेट के मैदान से रनिंग ट्रैक में आना सचिन के लिए आसान नहीं था. फिर भी उन्होंने ट्रायल दिया और स्टेट टीम के लिए सेलेक्ट हो गए, उन्हें ट्रेनिंग मिली और साल 2020 में नेशनल चैंपियनशिप के लिए क्वालीफाई हुए, साल 2021 में 100 मीटर की रेस में सचिन को चौथा स्थान मिला था. और अब साल 2022 में 20th National Para Athletics Championships में उन्हें ब्रॉन्ज मेडल मिला।

नेशनल चैम्पियनशिप जीतने के बाद सचिन के पास ख़ुशी मानाने के लिए न तो समय था और न ही सफलता का मजा लेने के लिए पैसे, सफल होने के बाद भी संघर्ष ने सचिन साहू का पीछा नहीं छोड़ा, और ब्रॉन्ज मेडल जीतने के बाद सचिन वापस लौटे और अपना ठेला उठाकर सड़कों में दोबारा से आइसक्रीम बेचना शुरू कर दिए.
सरकार से सवाल है कि जब एक पैरा एथलीट को मेडल मिलने के बाद भी अच्छा जीवन नहीं मिल सकता तो फिर पैरा-ओलम्पिक, पैरा एथलीट पैरा चैंपियनशिप आयोजित करने का क्या मतलब है? अगर ये खेल दिव्यांगों को बराबरी का अधिकार देने के लिए है, उन्हें खेल के प्रति प्रोत्साहित करने के लिए है तो फिर सचिन साहू की हालत ऐसी क्यों है? आज एक नेशनल चैपियनशिप में ब्रॉन्ज लाने वाला पैरा एथलीट सड़क में धूम-घूमकर कुल्फी बेच रहा है तो माफ़ कीजिएगा ये पैरा-स्पोर्ट आयोजित करना सिर्फ ढोंग समझ में आता है.

सचिन रीवा सिटी में ढेकहा में, सड़को में घूमते हुए पसीने से लथपथ आइसक्रीम का ठेला लेकर घूमते हैं. अगर सरकार, प्रशासन उनकी मदद नहीं करता है तो अब समय आ गया है कि समाज ऐसे टेलेंटेड लोगों की मदद के लिए आगे हाथ बढ़ाए।

वो तो भला हो ANI का जो सचिन साहू तक पहुंच गई, वरना ऐसे कितने सचिन साहू ऐसे ही संघर्ष कर रहे होंगे। विकलांग सचिन साहू नहीं यह सिस्टम है जिसे दिव्यांग एथिलीट्स की लाचारी दिखाई नहीं देती



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