मध्यप्रदेश

रीवा लोकसभाः किस्सा उस वक्त का जब 'न देख सकने वाले शख्स ने उन्हे हराया जिन्हे जनता नहीं देख सकती थी'

Aaryan Dwivedi
16 Feb 2021 6:06 AM GMT
रीवा लोकसभाः किस्सा उस वक्त का जब न देख सकने वाले शख्स ने उन्हे हराया जिन्हे जनता नहीं देख सकती थी
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रीवा (आर्यन द्विवेदी)। रीवा का लोकसभा चुनाव हो या विधानसभा चुनाव हमेशा से ही यहां के चुनाव सुर्खियों में रहें हैं। हों भी क्यों न रीवा प्रदेश की हाईप्रोफाइल सीट जो होती आ रही है। कई दिग्गजों ने यहां अपने भाग्य आजमाएं। महाराजा से लेकर दिव्यांग शख्स तक इस सीट का गवाह बनें।

बात 1989 की करते हैं देश के एक प्रमुख अखबार में एक हेडलाईन छपी थी ‘उस न देख सकने वाले शख्स ने उन्हे हराया जिन्हे जनता नहीं देख सकती थी’। खबर पढ़ने को लोग मजबूर हुए, खबर ने भी काफी सुर्खियां बटोरी। हम बात कर रहें हैं रीवा के सांसद रह चुके यमुना प्रसाद शास्त्री की। शास्त्री जी अब हमारे बीच नहीं हैं परंतु रीवा की राजनीति में उन्होने एक अलग ही इतिहास बनाया था। वे दिव्यांग थें, देख नहीं सकते थें, उन्होने उस दौर में रीवा के महाराजा मार्तण्ड सिंह को लोकसभा चुनाव में शिकस्त दी थी, जब रीवा की जनता महाराजा के सामने नतमस्तक हो जाती थी।

स्व. शास्त्री बेहद ही साधारण व्यक्ति थें, रीवा के विकास में भी उनकी अहम भूमिका रही है। शास्त्री जी कभी महाराजा के खिलाफ नहीं थें, बस वे इस बात से निराश थें कि आम जनता उन तक पहुंच कर अपना सुख-दुख नहीं बांट पाती थी। कहा तो यह भी जाता है कि शास्त्री जी को जिताने के लिए खुद उनके प्रतिद्धंदी महाराजा मार्तण्ड सिंह ने जनता से अपील तक कर डाली थी। स्व. यमुना प्रसाद शास्त्री आम जन के सुख दुख के सहभागी तब भी बनते रहें जब वे सांसद थें, साथ ही उनके जीवन का हर क्षण उन्होने जनता की सेवा के लिए न्यौच्छावर कर दिया था।

रीवा के खून में ही राजनीति बसती है, यह कहना न ही गलत होगा और न ही अतिश्योक्ति। चाहे दौर राजघराने का रहा हो, या कांलेज की राजनीति की रही हो। रीवा राजनीति में ऐसे ही पेश आया जैसे हर चुनाव रीवा के लिए एक महापर्व हो। सफेद शेर की इस धरती में राजा बनाम रंक की लड़ाई भी हुई। जिसमें राजा की हार हुई।

कभी किसी दल का वर्चश्व नहीं रहा आजादी के बाद सेन्ट्रल इण्डिया एजेन्सी के पूर्वी भाग के रियासतों को मिलाकर 1948 में इस प्रदेश का निर्माण किया गया था और राजधानी बनी थी रीवा। रीवा लोकसभा सीट में कभी किसी दल का वर्चस्व नहीं रहा। यहां की जनता ने किसी पार्टी को नहीं बल्कि उम्मीदवार को चुना।

गोवा आंदोलन में रीवा के यमुना शास्त्री का भूमिका साल 1955 में राम मनोहर लोहिया के नेतृत्व में गोवा मुक्ति आंदोलन देश में जोर पकड़ रहा था। रीवा का एक लड़का इस आंदोलन में शामिल हुआ था। नाम था यमुना प्रसाद शास्त्री। गोवा मुक्ति आंदोलन में यमुना प्रसाद शास्त्री की सक्रिय भूमिका थी। आजादी की इस जंग में उनके एक आंख की रोशनी चली गई। कहा जाता है वजह थी पुलिस की पिटाई। पुलिस ने उन्हें इस कदर पीटा था कि उनकी दाहिनी आंख की रोशनी चली गई। 1975 में उन्होंने आपातकाल के विरोध में विंध्य क्षेत्र में किसान आंदोलन की अगुवाई की। एक बार फिर से पुलिस ने इन पर इस कदर जुल्म ढाया कि उनकी बाईं आंख की रोशनी भी चली गई लेकिन उनकी नेत्रहीनता उनके संघर्षशील राजनीतिक सफर में बाधक नहीं बन सकी।

महाराजा को हराया यमुना प्रसाद शास्त्री आपातकाल के दौरान 19 महीने जेल में रहे। 1977 के लोकसभा चुनाव में भारतीय लोकदल पार्टी के टिकट पर रीवा संसदीय क्षेत्र से चुनाव लड़े। विपक्षी उम्मीदवार के रूप में मैदान में थे रीवा रियासत के महाराजा मार्तण्ड सिंह। महाराजा ने चुनाव निर्दलीय लड़ा था पर कांग्रेस का समर्थन मिला था। परिणाम आए तो 6 हजार 6 सौ 93 वोटों से यमुना प्रसाद शास्त्री अपना चुनाव जीत गए थे। देश में एक नया कीर्तिमान स्थापित हुआ था। देश की संसद में पहली बार कोई दिव्यांग पहुंचा था।

दूसरी बार महारानी को हराया यमुना प्रसाद शास्त्री दूसरी बार 1989 में जनता दल के टिकट पर फिर लोकसभा के लिए मैदान में उतरे थे। इस बार उनका मुकाबला रीवा राजघराने की महारानी प्रवीण कुमारी देवी से था। जनता ने एक बार फिर यमुना प्रसाद शास्त्री का साथ दिया था और वो दूसरी बार संसद पहुंचे। इसी मुकाबले के लिए हमने उस हेडलाइन का जिक्र किया जिसमें कहा था कि एक ऐसा उम्मीदवार जो जनता को नहीं देख सकता और दूसरा उम्मीदवार ऐसा जिसे जनता नहीं देख सकती। इसका मतलब ये था कि संघर्ष ने यमुना प्रसाद शास्त्री की आंखे छिन ली थी और वोट करने वाली जनता को वह देख नहीं सकते थे। प्रवीण कुमारी देवी रीवा रियासत की महारानी थीं और रीवा की आधे से ज्यादा आबादी ने उन्हें कभी देखा नहीं था और ना ही उनसे मिल सकती थी।

मुझे धृतराष्ट्र मत बनाओ शास्त्री जी जनता के लिए अनशन किया करते थे। उनके अनशनों की खबर सुनते ही प्रशासन में हड़कंप मच जाता था। शास्त्री जी अनशन में बैठे थे तब उनके एक करीबी ने कहा था शास्त्री जी उम्र बहुत हो गई अब अनशन मत किया करिए। शास्त्रीजी ने जबाव दिया था- अगर मेरे अनशन से किसी गरीब के घर में चूल्हा जलता है और उसे दो वक्त की रोटी मिलती है तो मैं हर दिन ऐसे अनशन कर सकता हूं। एक बार किसी ने कहा था कि अपने बेटे के लिए टिकट की पैरवी करिए तो शास्त्रीजी ने कहा था मैं अंधा हूं अब बेटे के टिकट की पैरवी करने की बात कह कर मुझे धृतराष्ट मत बनाओ।

जातीय समीकरण सदैव रहा हावी रीवा ब्राह्मण बाहुल्य क्षेत्र है। यहां जातीय समीकरण हमेशा हावी रहता है। चाहे चुनाव लोकसभा का हो या सरपंची का। ब्राम्हणवाद-ठाकुरवाद-पटेलवाद से लेकर समाज के अन्य वर्गों तक सिर्फ जातीय समीकरण ही हर चुनाव में देखे जाते हैं। यहां प्रायः देखने को मिला है कि अगर ब्राम्हण, ठाकुर, पटेल से लेकर कोई भी जाति उम्मीदवार हो तो सारे जाति के लोग अपने अपने बिरादर को जिताने के लिए एकजुट हो जाते हैं। परंतु अब बात अलग है। युवा जागरूक है, अपना हक पहचानता है। नई पीढ़ी जातिवाद से हटकर अपने भूमि के विकास को तवज्जो देने लगी है।

जातिगत समीकरण 2011 की जनगणना के अनुसार रीवा की जनसंख्या 23 लाख 65 हजार 106 है। यहां की 83.27 फीसदी आबादी ग्रामीण क्षेत्र और 16.73 फीसदी आबादी शहरी क्षेत्र में रहती है। यहां पर 16.22 फीसदी लोग अनुसूचित जाति और 13.19 फीसदी अनुसूचित जनजाति के हैं। यहां ब्राह्माण और ठाकुर वोटर ही हार जीत तय करते हैं।

रीवा लोकसभा में आठ विधानसभा सीटें रीवा लोकसभा सीट में आठ विधानसभा सीटे हैं। सिरमौर, सेमरिया, त्योंथर, मऊगंज, देवतालाब, मनगवां, रीवा और गुढ़। रीवा संसदीय सीट पर पहला चुनाव 1957 में हुआ था। मध्यप्रदेश की यह एक ऐसी सीट रही है जिस पर किसी एक पार्टी का दबदबा नहीं रहा है। इस सीट पर बहुजन समाज पार्टी का भी अच्छा खासा प्रभाव है। कांग्रेस को इस सीट पर आखिरी बार 1999 में जीत मिली थी। 1957 के चुनाव में यहां कांग्रेस को जीत मिली थी। कांग्रेस के शिव दत्त उपाध्याय यहां से पहली बार सांसद बने थे। शुरूआती तीन चुनावों में यहां कांग्रेस को जीत मिली तो 1977 में लोकदल को। रीवा लोकसभा सीट पर कांग्रेस को 6 बार, बसपा को 3 बार और बीजेपी को 3 बार जीत मिली है। कांग्रेस और बीजेपी दोनों ही इस सीट पर ब्राह्मण चेहरे पर दांव खेलते आए हैं। बीजेपी यहां तीनों बार ब्राह्मण चेहरे के दम पर ही चुनाव जीत पाई है।

2014 के परिणाम 2014 के चुनाव में बीजेपी के जनार्दन मिश्रा ने कांग्रेस के सुंदरलाल तिवारी को हराया था। जनार्दन मिश्रा को 3 लाख 83 हजार 320 वोट मिले थे तो सुंदरलाल तिवारी को 2 लाख 14 हजार 594 वोट मिले थे। जनार्दन मिश्रा का वोट प्रतिशत 46.18, सुंदरलाल तिवारी को 25.85 फीसदी था।

सांसद का रिपोर्ट कार्ड जनार्दन मिश्रा 2014 का चुनाव जीतकर पहली बार सांसद बने। संसद में जनार्दन मिश्रा की मौजूदगी 92 फीसदी रही। इस दौरान उन्होंने 36 बहस में हिस्सा लिया। 144 सवाल भी किए विकास कार्यों के लिए 25 करोड़ रुपये आवंटित हुए थे। उन्होंने 95.53 फीसदी राशि खर्च की उनका करीब 2.67 करोड़ रुपये का फंड बिना खर्च किए ही रह गया।

सफेद बाघों की धरती है रीवा शुरू में हमने सफेद शेरों का जिक्र किया था। रीवा के महाजारा मार्तंड सिंह शिकार के शौकीन थे। 1951 में वो शेर का शिकार करने निकले थे। रीवा में शिकार को लेकर एक किवदंती है अगर राजा किसी शेरनी का शिकार करे तो उसके बच्चों का भी राजा को शिकार करना पड़ता था। मार्तंड सिंह ने एक शेरनी का शिकार किया। उसके साथ तीन शावक ( शेरनी के बच्चे) थे। राजा ने दो शावकों को मार दिया लेकिन तीसरा शावक सफेद था। राजा उसे अपने साथ लेकर आए। उसका संरक्षण किया और नाम रखा मोहन। कहते हैं आज दुनिया में जितने भी सफेद शेर हैं वो मोहन की ही संतान हैं। 1960 में अमेरिका के राष्ट्रपति ने रीवा से एक सफेद शेर खरीदा था।

कब कौन बना सांसद 1957 में कांग्रेस के शिव दत्त उपाध्याय 1962 में कांग्रेस के शिव दत्त उपाध्याय 1967 में कांग्रेस के शंभूनाथ शु्क्ला 1971 में निर्दलीय महाराज मार्तंड सिंह 1977 में भारतीय लोकदल के यमुना प्रसाद शास्त्री 1980 में निर्दलीय महाराज मार्तंड सिंह 1984 में कांग्रेस के महाराज मार्तंड सिंह 1989 में जनता पार्टी के यमुना प्रसाद शास्त्री 1991 में बसपा के भीम सिंह पटेल 1996 में बसपा के बुद्धसेन पटेल 1998 में भाजपा के चंद्रमणि त्रिपाठी 1990 में कांग्रेस के सुंदरलाल तिवारी 2004 में भाजपा के चंद्रमणि त्रिपाठी 2009 में बसपा के देवराज सिंह पेटल 2014 में भाजपा के जनार्दन मिश्रा


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