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सुभाष चंद्र बोस ने हम सब के लिए क्या-क्या किया आप सोच नहीं सकते और शायद ही आपको मालूम होगा

सुभाष चंद्र बोस ने हम सब के लिए क्या-क्या किया आप सोच नहीं सकते और शायद ही आपको मालूम होगा
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Story Of Subhas Chandra Bose: नेता जी सुभाष चंद्र बोस गांधी के अहिंसा वाले विचारों से कतई सहमत नहीं थे. उनका कहना था आज़ादी मांगी नहीं छीनी जाती है

Story Of Subhas Chandra Bose: सुभाष चंद्र बोस जब यह नाम सुनाई देता है तो सिर्फ एक ही नारा सुनाई देता है "तुम मुझे खून दो मैं तुम्हे आज़ादी दूंगा" हम सब ये तो जानते हैं कि सुभाष चंद्र बोस देश की आज़ादी के लिए अंग्रेजी हुकूमत से सीधा लोहा लेने वाले महान नेता थे, वो मोहन दास करमचंद्र गांधी के अहिंसा वाले विचारों से ताल्लुख नहीं रखते थे उनका कहना था "आज़ादी मांगी नहीं छीनी जाती है"


नेता जी का जन्म 23 जनवरी 1897 को उड़ीसा के कटक में एक संपन्न और शिक्षित बंगाली परिवार में हुआ था, उनके पिता "जानकीनाथ बोस" कटक के विख्यात वकील थे और उनकी मां "प्रभावती" भी एक शिक्षित महिला थीं. प्रभावती और जानकीनाथ बोस के 14 बच्चे थे जिनमे से 6 बेटियां और 8 बेटे थे। बोस अपने माता-पिता कि 9 वीं संतान थे और 5 वें बेटे थे.


नेता जी सिविल सर्विसेस की तैयारी के लिए इंग्लैंड के केम्ब्रिज यूनिवर्सिटी गए, वो ऐसा वक़्त था कि सिविल सेवा में सिर्फ अंग्रेजों के बच्चे ही जाते थे, हिन्दुस्तानियों के लिए इस मुकाम में पहुंचना बेहद मुश्किल था. लेकिन नेता जी ने सिविल सेवा की परीक्षा पास कि और 4 थी रैंक हासिल की. वो चाहते तो एक IAS रहकर अच्छा जीवन बिता सकते थे, लेकिन उन्हें हिंदुस्तान में फिरंगियों की हुकूमत बर्दाश्त नहीं होती थी. भारतवासियों के साथ होता दुर्व्यवहार उन्हें देखा नहीं जाता था।

छोड़ दी थी सिविल सर्विसेस की नौकरी



वर्ष 1921 की बात है, देश में अत्याचार बढ़ रहा था, और स्वतंत्रता आंदोलन चरम पर था, यह देख कर बोस सिविल सर्विस को छोड़ भारत वापस लौट आये, और राष्ट्रीय कांग्रेस से जुड़ गए. उनकी सोच मोहन दास करमचंद्र गांधी से मेल नहीं खाती थी, गाँधी अहिंसा विचारधारा से देश आज़ाद करना चाहते थे और बोस लड़ाई लड़ कर. लेकिन वो गांधी का बहुत सम्मान करते थे। वो बोस ही थे जिन्होंने गांधी को राष्ट्रपिता कहा था। दोनों की सोच अलग थी लेकिन लक्ष्य एक था, देश की आज़ादी।

गांधी ने कहा था बोस की जीत मेरी हार

1938 में सुभाष चंद्र बोस कांग्रेस के अध्यक्ष बने, और राष्ट्रीय आयोग का गठन किया, उनकी नीति गाँधी और गांधीवादियों को रास नहीं आई. 1939 में वे फिर से गांधीवादी प्रतिद्वंदी को हरा कर चुनाव जीत गए. इसे गांधी ने अपनी हार मानी और कहा बोस की जीत मेरी हार है। गांधी नेता जी का विरोध करने लगे और कोंग्रस छोड़ने की बातें करने लगे. बोस ने इसके बाद खुद कांग्रेस छोड़ दी।

देश की आज़ादी के लिए पूरी दुनिया के लीडर्स से मिले



उस वक़्त द्वितीय विश्व युद्द चल रहा था, बोस का मानना था कि यही सही मौका है, अंग्रेजों को हारने के लिए उनके दुश्मनों का दोस्त बनना पड़ेगा। उनके इस विचार को देखते हुए ब्रिटिश शासन ने उन्हें कोलकाता में नज़रबंद कर दिया। वो अपने भतीजे शिशिर कुमार के साथ वहां से भाग निकले और अफ़ग़ानिस्तान होते हुए सोवियत संध पहुंच गए।

1993 से 36 तक वो यूरोप में रहे, उस वक़्त यूरोप में हिटलर का नाजीवादी और फांसीवादी राज था। और उसका निशाना इंग्लैंड था। भारत में भी अंग्रेजों का कब्ज़ा था और इंग्लैंड के खिलाफ लड़ाई लड़ने के लिए नेता जी ने हिटलर की मदद करने की पेशकश की थी। दुश्मन का दुश्मन दोस्त होता है, नेता जी का भी यही मानना था, स्वतंत्रता के लिए राजनितिक के साथ कूटनीतिक और सैन्य सहयोग की भी ज़रूरत रहती है।

इस दौरन उन्होंने अपनी सेकेट्री एमिली से शादी की और उनसे एक बेटी हुई जिनका नाम अनीता है और वो फ़िलहाल जर्मनी में रहती हैं।

हिटलर से मिलने के बाद नेता जी 1943 में जर्मनी से जापान चले गए और वहां से सिंगापोर, उन्होंने आज़ाद हिन्द फ़ौज की कमान अपने हाथ में लेली। उस वक़्त आज़ाद हिन्द सेना के नेता रास बिहारी बोस थे। नेता जी ने आज़ाद हिन्द फ़ौज का पुनर्गठन किया, जिसमे महिलाओं को भी शामिल किया गया और उनके लिए झांसी रेजिमेंट का गठन किया गया जिसमे लक्ष्मी सहगल कैप्टन बनी थीं.

तुम मुझे खून दो मैं तुम्हे आज़ादी दूंगा


देश को आज़ाद कराने के मकसद थे उन्होंने 21 अक्टूबर 1943 को आज़ाद हिन्द फ़ौज की स्थापना की. जिसके प्रतीक चिह्न में दहाड़ते बाघ का चित्र बना था, अपनी फ़ौज के साथ वो 4 जुलाई 1944 को बर्मा गए और यहीं पर उन्होंने "तुम मुझे खून दो मैं तुम्हे आज़ादी दूंगा' का नारा दिया।

हत्या या हादसा


पूरा देश सुभाष चंद्र बोस को अपना नेता मान चुका था, सब को भरोसा था कि नेता जी देश को आज़ादी दिला देंगे। वो भारत के प्रथम प्रधानमंत्री बनने वाले थे और देश की कमान उन्हें मिलने वाली थी तभी... 18 अगस्त 1945 के दिन उनका विमान दुर्घटनाग्रस्त हो गया। वो मंचूरिया जा रहे थे और उनका विमान अचानक से लापता हो गया। जापान सरकार ने बयान दिया कि ताईवान में कोई विमान दुर्घटनाग्रस्त नहीं हुआ है। जिसके बाद उनकी हत्या का शक और गहरा हो गया। ऐसे भी आरोप लगे कि जवाहरलाल नेहरू ने उनकी और उनके परिवार की जासूसी करवाई थी। साल 2015 में एक सीक्रेट फाईल पूरे देश के सामने आई जिसके बाद देश में बवाल मच गया। कई लेखकों का कहना था कि नेहरू को यह लगता था कि सुभाष जिन्दा है और अपने परिवार से सम्पर्क करेंगे इसी लिए उनके परिवार की जासूसी हुई।

उनकी मौत से जुडी 37 फाइलें वर्तमान सरकार ने सार्वजनिक कर दीं. लेकिन किसी भी फाइल में यह सबूत नहीं मिल पाया कि सुभाष चंद्र उस विमान हादसे में मारे गए थे। आज भी यह रहस्य बरकार है कि नेता जी उस हादसे में शहीद हुए थे या नहीं। क्योंकि उनका शरीर कभी मिला ही नहीं।

गुमनामी बाबा ही बोस थे?


17 सितंबर 1985 के दिन करीब 4 बजे फ़ैजाबाद के गुफ़्तार घाट में सरयू नदी के किनारे चुपके से गुमनामी बाबा का अंतिम संस्कार हुआ. कहा जाता है कि गुमनामी बाबा ही नेता जी सुभाष चंद्र बोस थे. विमान हादसे के बाद वो जीवित बच गए लेकिन उन्हें मालूम था कि सरकार में कुछ ऐसे लोग हैं जो उन्हें मारना चाहते हैं। उनका चेहरा किसी को देखने को नहीं मिला, अंतिम संस्कार से पहले किसी केमिकल से चेहरा बिगाड़ दिया गया ताकि कोई पहचान ना कर सके.

"जब वो जीवित थे तो किसी से मिलते नहीं थे और अपना घर बदलते रहते थे. उनके सेवक भी बदलते रहते थे. जब उनकी मौत हुई तो उनके सामान में एक बक्सा मिला जिससे यह शक और बढ़ गया कि गुमनामी बाबा ही नेता जी थे. दरअसल उस बक्से में नेता जी के जन्मदिन की फोटो थीं. लीला राय की शोक सभा की कुछ तस्वीरें, नेता जी की तरह दर्जनों चश्मे, 555 ब्रांड वाली सिगरेट का पैकेट, और विदेशी पुरानी शराब की बोतल थी. इसके अलावा नेता जी के माता-पिता की फोटो, रोलेक्स घडी और आज़ाद हिन्द फ़ौज की वर्दी मिली"

इतना ही नहीं भारत चीन युद्ध, जर्मन, जापान और अंग्रजी साहित्य की किताबें, हाथ से बने नक़्शे और उसकी जगह का नक्शा जहां नेता जी का विमान क्रैश हुआ था। और आज़ाद हिन्द फ़ौज के गुप्तचर शाखा के प्रमुख 'पवित्र मोहन राय के लिखे बधाई पत्र भी मिले। पता चला कि गुमनामी बाबा अंग्रजी, जापानी, जर्मन भासा बोल सकते थे.

जब नेता जी कि भतीजी ललिता बोस को यह पता चला तो वह फैजाबाद आईं और उन तस्वीरों और वर्दी को देखकर फफक के रोने लगीं और कहा यह सब मेरे चाचा जी का है। लेकिन ना तो यह पुष्ट हो पाया कि गुमनामी बाबा ही नेता जी थे और ना ही ये पता चल पाया कि उनकी मौत विमान हादसे में हुई या नहीं।


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