मध्यप्रदेश : किसान की दो बेटियां खुद बन गई बैल, खुद चला रही हैं हल

भोपाल : 2011 से लगातार कृषि कर्मण अवार्ड जीतने वाले मध्यप्रदेश के आगर मालवा जिला मुख्यालय से लगभग 30 किलोमीटर दूरी पर स्थित गांव मथुराखेड़ी

Update: 2021-02-16 06:26 GMT

मध्यप्रदेश : किसान की दो बेटियां खुद बन गई बैल, खुद चला रही हैं हल

भोपाल : 2011 से लगातार कृषि कर्मण अवार्ड जीतने वाले मध्यप्रदेश के आगर मालवा जिला मुख्यालय से लगभग 30 किलोमीटर दूरी पर स्थित गांव मथुराखेड़ी में घर की दो बेटियां बुवाई के बाद खरपतवार नष्ट करने के लिए डोर चलाने वाले बैल ना होने की वजह से बैलों की जगह खुद डोर चला रही हैं.

बड़ी बेटी जमना बताती है कि खेत में खरपतवार निकालने के लिए डोर चलाना पड़ता है. हमारे पास बैल नहीं है. इसलिए हम बहनों को ही डोर चलाना पड़ता हैं. हम बहनों को बैल की तरह जुतना अच्छा नहीं लगता, लेकिन मजबूरी है बैल खरीदने के पैसे नहीं हैं. बैल खरीद भी ले तो रखने के लिए जगह नहीं है न ही बैल के रखरखाव और खाने में होने वाले खर्च के लिए भी हमारे पास कुछ है. ऐसे में खुद डोर चलाने के अलावा और कुछ बचता नहीं है.

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वे आगे बताती हैं कि पढ़ने की इच्छा थी गांव में आठवीं तक का स्कूल है. मैंने आठवीं तक की पढ़ाई की हैं. उसके बाद की पढ़ाई के लिए बाहर जाना पड़ता ऐसे में ना तो बाहर जाकर पढ़ाई के लिए हमारे पास पैसा है. फिर पिता की भी हालत ठीक नहीं है ऐसी स्थिति में पिता को छोड़कर भी नहीं जाना चाहती थी. ऐसे में पढ़ाई छोड़कर पिता का हाथ बटाना ही जरूरी समझा. इन कारणों से मेरी छोटी बहन ने भी स्कूल छोड़ दिया है.

कुबेर सिंह बताते हैं मेरे पास 2 बीघा कृषि भूमि का एक छोटा सा टुकड़ा है. घर चलाने का एकमात्र यही साधन है. इससे साल भर के लिए ठीक से दो वक्त का खाना भी नहीं हो पाता है. घर की और बेटियों की अन्य जरूरतें पूरा करने के लिए हमारे पास पैसा ही नहीं है. खेती के भी अन्य खर्चो हम नहीं उठा सकते इसीलिए मजबूरी में खेती में मुझे अपनी बेटियों की मदद लेनी पड़ती है.

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गांव के निवासी कमल सिंह बताते हैं कि कुबेर सिंह के खेतों में हाथ बटाने वाली बड़ी बेटी जमना 18 साल की हैं और छोटी बेटी 16 साल की है. खेत में बैलों की जगह दोनों बेटियों को काम करते देखना बिल्कुल अच्छा नहीं लगता पर वह बेचारे करे क्या? अधिकारियों को भी कुबेर सिंह की इस हालत की पूरी जानकारी है. पर उन्हें अब तक किसी भी तरह की मदद नही मिली हैं.

कमल सिंह आगे बताते हैं कि लगभग 3 महीने पहले आंधी की वजह से कुबेर सिंह का घर भी गिर गया था. जिसके बाद प्रधानमंत्री आवास के लिए कुबेर सिंह लगातार चक्कर लगाते रहे पर उन्हें किसी भी तरह की सरकारी मदद नहीं मिली सरपंच सेक्रेटरी भी तरह तरह से टालते रहें. कुबेर सिंह का पत्नी और दो बेटियों के साथ बिना घर के रहना मुश्किल हो रहा था. फिर गांव वालों ने ही मिलकर चंदा करके घर बनवाने के लिए कुछ आर्थिक मदद दी अभी उनके घर बनने का काम चल रहा है.

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